

जगद् गुरू रामानंदाचार्य नरेंद्राचार्यजी
सनातन वैदिक धर्म और मानवता का एक चमकता हुआ प्रतीक
जगद् गुरू रामानंदाचार्य नरेंद्राचार्यजी एक पूजनीय आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु हैं, जो अपनी गहन ज्ञानपूर्ण शिक्षाओं और आध्यात्मिकता के प्रचार के प्रति समर्पण के लिए प्रसिद्ध हैं। रामानंदाचार्य दक्षिणपीठ नाणीजधाम के प्रमुख के रूप में, उन्होंने अपनी शिक्षाओं और मार्गदर्शन के माध्यम से अनगिनत अनुयायियों को प्रेरित किया है। उनका कार्य भक्ति, आत्म-साक्षात्कार और सत्य की खोज के महत्व पर जोर देता है। उनके नेतृत्व में, रामानंदाचार्य दक्षिणपीठ नाणीजधाम आध्यात्मिक साधकों के लिए एक पवित्र स्थल बन गया है।
“मनुष्यचर्मणा बद्धः साक्षात् परशिवः स्वयम्।
सच्छिष्यानुग्रहार्थाय गूढं पर्यटति क्षितौ।
अत्रिनेत्रः शिवः साक्षाद् अचतुर्बाहुरच्युतः।
अचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये॥”
गुरु तत्व का स्वरूप
आठ प्रकार की प्रकृतियों (पंचमहाभूत, अहंकार, बुद्धि और मन) से बना यह मानव शरीर बाहर से भले ही हाड़-मांस का दिखाई देता हो, परंतु जब इस शरीर में सद्गुरु के रूप में दिव्य शक्ति अवतरित होती है, तब वह साक्षात् परमेश्वर ही होता है।
गुरु ही साक्षात् परमशिव हैं।
वह सत्शिष्यों पर अनुग्रह करने के लिए ही इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
श्रीगुरु — त्रिनेत्र रहित शिव, चतुर्भुज रहित विष्णु और चतुर्मुख रहित ब्रह्मा हैं।
गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महेश के स्वरूप तो हैं ही, परंतु उससे भी आगे वे साक्षात् परब्रह्म के मूर्त स्वरूप हैं।
‘गुरु’ शब्द का अर्थ
संस्कृत में ‘गुरु’ शब्द का अर्थ इस प्रकार बताया गया है –
“गुकारस्त्वन्धकारश्च, रूकारस्तेज उच्यते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म, गुरुरेव न संशयः॥”
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‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है प्रकाश।
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जो अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश देता है, वही गुरु है।
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जो अज्ञान का नाश करता है, वही सगुण ब्रह्म है — वही गुरु है।
गुरु से श्रेष्ठ कुछ नहीं
“नधिकं तत्त्वं, न गुरोरधिकं तपः।
तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥”
गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्त्व नहीं, गुरुसेवा से श्रेष्ठ कोई तप नहीं। गुरु द्वारा दिए गए तत्त्वज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। ऐसे परम पूजनीय श्रीगुरु को मेरा सादर नमस्कार।
सद् गुरु का महत्व
“ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥”
मैं उन सद् गुरुओं को प्रणाम करता हूँ जो ब्रह्मानंद के मूर्त स्वरूप हैं, जो परमसुख प्रदान करते हैं, जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं। जो द्वंद्वों (सुख-दुःख, लाभ-हानि आदि) से परे हैं, जो आकाश की तरह विशाल और सूक्ष्म हैं, और “तत्त्वमसि” जैसे महावाक्य का अंतिम लक्ष्य हैं। वे एक हैं, नित्य हैं, निर्मल हैं, अचल हैं, समस्त बुद्धियों के साक्षी हैं, भावनाओं से परे हैं और त्रिगुणों (सत्त्व, रज, तम) से मुक्त हैं।
गुरु से बढ़कर इस संसार में कुछ भी नहीं। गुरु से परे कोई सत्य नहीं। गुरुसेवा से बढ़कर कोई तप नहीं। गुरु तत्त्वज्ञान से भी परे हैं — वही साक्षात् परब्रह्म के स्वरूप हैं। वे परमानंद प्रदान करते हैं और केवल ज्ञान के मूर्त स्वरूप हैं। गुरु सुख-दुःख, धूप-बारिश, गर्मी-ठंडक जैसे द्वंद्वों से मुक्त हैं। वे आकाश की भांति सर्वव्यापी और अति सूक्ष्म हैं। “तत्त्वमसि” इस वेदवाक्य का अंतिम लक्ष्य ही गुरु हैं। वे नित्य, निर्मल, अचल और समस्त बुद्धि के मूर्त स्वरूप हैं।
हे नरेंद्राचार्य, आप उन अनुभवों को प्रदान करने वाले हैं जो समस्त भावनाओं से परे हैं। आपको हमारे शत-शत कोटि नमस्कार।
जन्म और उत्पत्ति
रत्नागिरी – यह वह भूमि है जो रत्नों की समृद्धि से परिपूर्ण है, अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य से सजी हुई है, जो प्यास और भूख को भुला देने वाले विशाल समुद्र तट से धन्य है, और जिसे पराक्रमी परशुराम की भूमि के रूप में जाना जाता है — उसी पवित्र कोकणभूमि में श्री स्वामी नरेंद्राचार्य जी का जन्म हुआ।
यह भूमि आम, फणस (कटहल), काजू, नारियल और सुपारी जैसी प्राकृतिक संपदाओं से समृद्ध है।
इसी भूमि के एक छोटे से गाँव नाणीज में श्री स्वामी नरेंद्राचार्य जी ने अवतार लिया।
पूर्व में यह नाणीज गाँव एक साधारण, अनजाना और उपेक्षित स्थान था। परंतु आज जगद् गुरू रामानंदाचार्य नरेंद्राचार्य जी के पवित्र चरणों के स्पर्श से यह भूमि पावन हो चुकी है और सम्पूर्ण विश्व के लिए वास्तविक आध्यात्मिक जागृति का केंद्र बन गई है।
‘नाणीज’ नाम का गूढ़ अर्थ
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‘ना’ का अर्थ है ‘नहीं’, और ‘नीज’ का अर्थ है ‘नींद’।
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इस प्रकार ‘नाणीज’ का अर्थ हुआ — जो कभी नहीं सोता।
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जो स्वयं जागृत रहकर करोड़ों लोगों को जागृत रहने और आध्यात्मिक रूप से सजग रहने की प्रेरणा देता है — वही नाणीज गाँव है।
इसी पवित्र भूमि से जगद् गुरू रामानंदाचार्य नरेंद्राचार्य जी ने सम्पूर्ण मानवता के लिए आध्यात्मिक जागृति, धर्मसंवर्धन और मानवकल्याण का महामार्ग प्रकाशित किया।
नरेंद्राचार्य जी का कुलपरिचय
(Ancestral Background)
जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी के माता-पिता निःसंदेह पूर्वजन्म के योगभ्रष्ट तपस्वी थे — अर्थात् वे ऐसे उच्च कोटि के साधक थे जो योगमार्ग पर अग्रसर रहते हुए भी किसी कारणवश उससे विचलित हो गए थे।
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माता – सुभद्रा: श्रीदत्तात्रेय महाराज की अत्यंत दृढ़ और अपार श्रद्धा रखने वाली निष्ठावान भक्त।
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पिता – बाबूराव गोविंदराव सुर्वे: सूर्यवंश (सूर्यवंशी) वंश के गौरवशाली वंशज तथा वसिष्ठ गोत्र के सदस्य।
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कुलदैवत (परिवार की आराध्य देवी): तुळजापूर की श्री भवानी माता।
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देवक (कुलचिह्न): पंचपल्लव और सूर्यफूल।
इस परिवार का मूल निवास नाशिक जिले के निफाड नामक स्थान पर था।
छत्रपति शिवाजी महाराज के काल में इस वंश के पूर्वज बहिर्जी नाईक (निंबाळकर) के नेतृत्व वाले गुप्तचर विभाग में कार्यरत थे। शिवाजी महाराज के आदेशानुसार ये गुप्तचर निरंतर भ्रमण करते रहते — जनमानस की भावना का अध्ययन करते, शत्रुओं की गतिविधियों पर सूक्ष्म दृष्टि रखते और उनके चाल-प्रपंचों का विश्लेषण करते। सिंधुदुर्ग, विजयदुर्ग, रायगड, जंजिरा जैसे महत्त्वपूर्ण किलों सहित संपूर्ण कोकण तट की विस्तृत जानकारी एकत्रित करने के उद्देश्य से यह परिवार अंततः कोकण क्षेत्र में आकर स्थायी रूप से बस गया। हिंदवी स्वराज्य की स्थापना के पश्चात, अनेक अन्य परिवारों की तरह यह परिवार भी सदा के लिए कोकण में ही निवास करने लगा।
नाणीज का परिवर्तन
(Transformation of Nanij)
यदि कोई ३० से ४० वर्ष पहले यह कहता कि – “नाणीज यह छोटा-सा गाँव एक दिन संपूर्ण विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करेगा” – तो शायद कोई भी इस पर विश्वास नहीं करता। क्योंकि उस समय नाणीज एक अत्यंत दुर्गम, पिछड़ा हुआ और किसी भी ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, धार्मिक या सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वहीन गाँव था। तो फिर यह अद्भुत परिवर्तन कैसे हुआ? यह चमत्कारी बदलाव किस प्रकार संभव हुआ? इस प्रश्न का उत्तर केवल एक है, जगद् गुरू रामानंदाचार्य नरेंद्राचार्य जी का दिव्य आगमन और उनका निरंतर प्रयास।
उनकी आध्यात्मिक तेजस्वी उपस्थिति और धर्मप्रबोधन के अथक कार्यों ने इस कभी निद्रित गाँव को मानवता के लिए धर्म, ज्ञान और जागृति के दीपस्तंभ में परिवर्तित कर दिया।
दैवी अवतरण और जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी का जन्म
(Divine Descent and Birth)
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥”
“हे भारत! जब-जब धर्म का पतन होता है और अधर्म का उदय होता है, तब-तब मैं स्वयं अवतार धारण करता हूँ। सज्जनों की रक्षा करने के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की पुनः स्थापना के लिए मैं युग-युग में जन्म लेता हूँ।”
जब धर्म दुर्बल हो जाता है, नीतिमूल्य क्षीण हो जाते हैं, और संतों व सात्त्विक व्यक्तियों के लिए जीवन कठिन बन जाता है — तब परमेश्वर इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। कभी वे श्रीराम बनकर आते हैं, कभी श्रीकृष्ण के रूप में, कभी संत ज्ञानेश्वर माउली के रूप में, तो कभी स्वामी विवेकानंद के रूप में। उसी दैवी परंपरा में, माता जगदंबा की नवरात्रि के पावन पर्व पर, आश्विन शुक्ल अष्टमी के शुभ दिन एक दिव्य बालक ने जन्म लिया — जिसके विषय में जन्म के समय ही परिवार के पुरोहितों ने भविष्यवाणी की थी कि –
“यह बालक संसार का नाथ बनेगा।” वह ज्ञान का तेजस्वी सूर्य थे — नरेंद्र, जिनका जन्म शुक्रवार, 21 अक्टूबर 1966 को रात 10 बजे पवित्र नाणीजधाम की पावन भूमि पर हुआ।
बाल्यावस्था की आध्यात्मिक प्रवृत्ति
(Early Spiritual Inclinations)
बहुत ही कम आयु से ही जगद् गुरू नरेंद्राचार्यजी की गहरी झुकाव श्रीदत्त भक्ति की ओर था। और इसका प्रमुख कारण उनकी पूजनीय माता सुभद्रा थीं। नरेंद्राचार्य जी के जीवन की एक विशेषता सदैव यह रही है कि वे जो भी कार्य करते हैं, उसे मूल से लेकर पूर्णता तक पहुंचाते हैं — चाहे वह ईश्वरभक्ति हो, सामाजिक कार्य हो या कोई अन्य क्षेत्र। इसी प्रगाढ़ भक्ति के कारण श्रीदत्तात्रेय महाराज ने उन्हें अपना स्वीकार किया। बाल्यावस्था में ही नरेंद्राचार्य जी हर वस्तु में दत्तमहाराज के दर्शन करते थे। उन्हें यह भी पूर्वाभास हो जाता था कि कोई व्यक्ति क्या कहने वाला है। वे अपने बालमित्रों से कहते, “अब अमुक व्यक्ति यह बोलेगा,” और वह बात बिल्कुल वैसी ही घटित होती। यह भले ही आश्चर्यजनक लगे, परंतु श्रीकृष्ण भगवान भगवद्गीता में कहते हैं —
“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥”
“जो लोग अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हैं और निष्काम भाव से मेरी उपासना करते हैं, उनके योग-क्षेम (आवश्यकताओं और सुरक्षा) का भार मैं स्वयं वहन करता हूँ।”
नरेंद्राचार्य जी का बाल्यकाल ऐसा था जैसे प्रतिपदा का चंद्रमा धीरे-धीरे पूर्णिमा की ओर बढ़ता है, वैसे ही उनकी भक्ति निरंतर प्रगाढ़ होती चली गई। (इसके कई उदाहरण आगे के जीवनचरित्र में और अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देंगे।)
बाल्यावस्था की विलक्षण घटनाएँ
(Remarkable Incidents of Early Life)
नरेंद्राचार्य जी बचपन में अन्य बच्चों की तरह ही चंचल और खेलप्रिय थे, परंतु उनके अंदर असाधारण एकाग्रता और ध्यानशीलता बचपन से ही दिखाई देती थी। एक बार जब वे चौथी-पाँचवीं कक्षा में थे, उन्होंने श्रीदत्तात्रेय भगवान का ध्यान प्रारंभ किया। ध्यानावस्था में वे इतने गहराई तक डूब गए कि एक छोटा बिच्छू (इंगली) उनकी जाँघ पर चढ़कर काफी देर तक बैठा रहा, फिर भी उन्हें इसका कोई भान नहीं हुआ। उनकी बहन रंजना ने जब उस बिच्छू को देखा तो ज़ोर से चीख पड़ी, फिर भी वे ध्यान में ही मग्न रहे, तनिक भी नहीं हिले। केवल जब उसने उन्हें ज़ोर से झकझोरा तब जाकर वे ध्यानावस्था से बाहर आए। बाल्यावस्था में भी उनकी ध्यानावस्था की गहराई और स्थिरता अत्यंत अद्भुत थी। नरेंद्राचार्य जी में बचपन से ही नेतृत्व क्षमता, संगठन कौशल और खेलकूद की भावना प्रचुर मात्रा में विद्यमान थी।
पाँचवीं-छठी कक्षा के समय ही उन्होंने अपने गाँव में दत्त जयंती का सार्वजनिक उत्सव प्रारंभ किया, जो आज भी नाणीजधाम में निरंतर मनाया जाता है।
कोकण क्षेत्र में होली पर्व को विशेष महत्त्व प्राप्त है और इसे सामान्यतः बड़े लोग ही मनाते हैं। लेकिन केवल 10-11 वर्ष की आयु में ही नरेंद्राचार्य जी और उनके मित्रों ने फाल्गुन शुक्ल पंचमी से पूर्णिमा तक होली उत्सव बड़े लोगों की भाँति मनाना प्रारंभ किया। आज भी बच्चों द्वारा नाणीज में होली मनाने की यह परंपरा जीवित है — जो उनके बाल्यावस्था के संगठन कौशल की साक्षी है। आज हम देखते हैं कि इन्हीं नेतृत्व गुणों के कारण नरेंद्राचार्य जी लाखों लोगों को एक ध्येय के लिए संगठित करने में सफल हुए हैं।
शैक्षणिक रुचि और दृष्टिकोण
(Academic Interests and Vision)
विद्यालयीन जीवन में जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी के प्रिय विषय थे — गणित, विज्ञान और इतिहास।
गणित के प्रति उनका विशेष लगाव आगे चलकर समाज तक आध्यात्मिक ज्ञान और समाजसेवा को सूचना प्रौद्योगिकी (IT) के माध्यम से पहुँचाने में अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ। आज उनके नेतृत्व में 150 से 200 आईटी इंजीनियर कार्यरत हैं, और उन्होंने अपनी स्वयं की संकल्पना के आधार पर 17 से 18 सॉफ्टवेयर प्रणालियाँ विकसित की हैं। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इन सभी सॉफ्टवेयरों के लगभग 70 से 80 प्रतिशत लॉजिक उन्होंने स्वयं तैयार किए हैं। संक्षेप में कहें तो — दूरदृष्टि, नेतृत्व क्षमता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, अध्यात्म और जीवन का गणित — इन सभी के बीज उनके बाल्यकाल में ही बोए गए थे।
शिक्षा और प्रारंभिक करियर
(Education and Early Career)
मार्च 1983 में एस.एस.सी. परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद नरेंद्राचार्य जी उच्च शिक्षा के लिए ठाणे चले गए।
हालाँकि, उन्हें शहर का वातावरण रास नहीं आया क्योंकि उनका मन कभी भी सांसारिक विषयों में नहीं रमा। उनकी रुचि सदैव उपासना, ध्यान और आध्यात्मिक साधना के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रही। घर लौटने के बाद उनके माता-पिता ने उन्हें ग्रामसेवक के रूप में सरकारी नौकरी करने का आग्रह किया। उन्हें यह भलीभाँति ज्ञात था कि इतनी गहरी आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति अन्यथा सांसारिक जीवन में प्रवेश नहीं करेगा। इसलिए उन्होंने उन्हें परिवार और समाज की जिम्मेदारियों का अनुभव कराने हेतु प्रेरित किया। 29 मार्च 1985 को नरेंद्राचार्य जी ने सरकारी सेवा में ग्रामसेवक के रूप में प्रवेश किया। उन्होंने नौकरी में पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से कार्य किया, परंतु उनका मन निरंतर अध्यात्म में ही रमा रहा। माता-पिता की इच्छा थी कि वे नौकरी करें, विवाह करें और गृहस्थ जीवन का निर्वाह करें। सभी भाई-बहनों में से नरेंद्राचार्य जी सबसे अधिक आज्ञाकारी पुत्र थे। उनकी माता सुभद्रा अक्सर कहा करती थीं –
“तू अवश्य भक्ति कर, परंतु हमारी इच्छा है कि तू संसार भी करे। सुज्ञ पुत्र को माता-पिता की आज्ञा कभी नहीं तोड़नी चाहिए। हमारे आशीर्वाद तेरे साथ रहेंगे। परंतु तू नौकरी कर, गृहस्थी कर और हमें प्रसन्न कर। मैं दत्तभक्त हूँ — मेरे आशीर्वाद तेरे साथ रहेंगे। तू जग का कल्याण करेगा और भगवान दत्त महाराज तेरे ऊपर सदा कृपा करेंगे। जैसा वे आदेश देंगे, वैसा ही तू आचरण करना।”
दैवी मार्गदर्शन आणि आध्यात्मिक प्रवास
(Divine Guidance and Spiritual Path)
एक दिन भगवान श्रीदत्तात्रेय की कृपा और आदेश से जगद् गुरू नरेंद्राचार्यजी श्री गजानन महाराज शेगांव के भक्त बन गए — जो स्वयं सिद्ध, ब्रह्मनिष्ठ और परम योगी थे।
भगवान दत्तात्रेय ने उन्हें आदेश दिया:
“अब से तुम्हारे आध्यात्मिक मार्ग के मार्गदर्शक शेगांव के संत शिरोमणि श्री गजानन महाराज होंगे।”
इस दैवी आदेश को उन्होंने स्वयं ब्रह्म का आदेश मानते हुए, अपने आप को पूर्णतः गजानन महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया और उनके दास (सेवक) बन गए।
गुरुचरणों की तड़प और संन्यास की ओर अग्रसरता
(Longing for the Guru’s Feet & the Turn Toward Renunciation)
अभंग:
गजानना तुझ्या आम्ही पायातील वहाण। याचक तुझे आम्ही दयावे समाधान॥
तुम्हापुढे देवा आम्ही घुंगुरडया समान। नेणो भावे कैसी घडे सेवा महान॥
उपाधि वचन ना ऐकती कर्ण। बहु त्रासियले आमुचे मन॥
जरी तुम्ही दिले आम्हा शाश्वत सुख। येणे नाही होणार आमुचे मन पाक॥
श्रीहरि तुम्हावीण नको हे जीणे। आस आहे चरणाची नरेंद्र म्हणे॥
भावार्थ:
गजानन महाराज के चरणों के प्रति नरेंद्राचार्य जी की तड़प दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। माता-पिता को यह महसूस होने लगा कि उनका सरकारी नौकरी के प्रति रुझान कम होता जा रहा है। इस कारण उन्होंने यह निर्णय लिया कि उनका विवाह करवा देना चाहिए, ताकि वे सांसारिक जीवन में स्थिर हो जाएं। 15 अक्टूबर 1985 को उनका विवाह संपन्न हुआ। वधू थीं — शोभना, श्री शांताराम बाबू रसाळ की कन्या (जन्म: 2 जून 1968) विवाह के बाद वे सौ. सुप्रिया नरेंद्र सुर्वे कहलाने लगीं। माता-पिता अत्यंत प्रसन्न हुए, क्योंकि उन्हें लगा कि अब नरेंद्राचार्य जी गृहस्थ जीवन में मन लगाएंगे। परंतु उन्होंने यह नहीं समझा कि जब नरेंद्राचार्य जी को पुत्र प्राप्ति होगी, तब उन्हें स्वतः ही सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होने की धर्माज्ञा प्राप्त होगी। 24 अक्टूबर 1988, सोमवार, पौर्णिमा की रात 11:49 बजे, पुत्ररत्न कानिफनाथ का जन्म हुआ। नरेंद्राचार्य जी के हृदय में यह गहन आनंद का क्षण था, क्योंकि उन्हें अनुभव हुआ कि उन्होंने अपनी सांसारिक जिम्मेदारी पूरी कर ली है और अब वे अपने आध्यात्मिक और अलौकिक जीवन-यात्रा की शुरुआत कर सकते हैं। इस बीच, परिवार और संबंधियों को लगा कि पुत्र प्राप्ति के कारण अब नरेंद्राचार्यजी संसार में और अधिक बंध गए हैं। परंतु वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी — यह क्षण उनके वैराग्य के और भी गहन हो जाने का था।
आध्यात्मिक मार्गदर्शक का जन्म
(The Birth of a Spiritual Guide)
श्री गजानन महाराज शेगांव सदैव जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी के अंतःकरण में विराजमान रहे। उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उनके व्यक्तित्व से प्रस्फुटित होने वाली अलौकिक और दिव्य ऊर्जा का अनुभव करता था।
धीरे-धीरे लोग अपनी सांसारिक समस्याएँ, दुख और कठिनाइयाँ लेकर उनके पास आने लगे और उनसे मार्गदर्शन माँगने लगे। नरेंद्राचार्यजी द्वारा सरल, सहज और साधारण शब्दों में दिए गए उपदेशों ने अनेक लोगों के जीवन में गहरा परिवर्तन ला दिया।
उनके चारों ओर भक्तों का समूह बढ़ने लगा और यहीं से सामुदायिक भक्ति — जैसे सामूहिक भजन, नामस्मरण आदि — की परंपरा का आरंभ हुआ। सन् 1989 में पहली बार श्री गजानन महाराज प्रकट दिन उत्सव नरेंद्राचार्य जी के घर पर बड़े भक्तिभाव से मनाया गया। परंतु उनके अंतःकरण में न तो नौकरी, न पत्नी, न पुत्र और न ही किसी भी सांसारिक विषय में कोई रुचि शेष रही। समय बीतने के साथ ही भक्तों की संख्या हजारों से बढ़कर दसियों हजार तक पहुँच गई और भक्ति तथा आध्यात्मिक साधना की धारा और भी तीव्र और व्यापक होती गई।
गुरु आदेश और ब्रह्मज्ञान की प्यास
श्री गजानन महाराज ने उनके अंतःकरण में उठ रही ब्रह्मज्ञान की प्रबल प्यास को महसूस किया और उन्हें आदेश दिया — “तू अब ‘सद् गुरू’ कर।” गजानन महाराज का यह आदेश नरेंद्राचार्य जी के लिए ब्रह्मवाक्य था।
इस आज्ञा और प्रेरणा ने उनके हृदय में यह दृढ़ भावना उत्पन्न कर दी कि गुरु के बिना यथार्थ ज्ञान संभव नहीं। अब उनके मन में एक गूढ़ सत्य आकार लेने लगा —
“ब्रह्मज्ञानविना उपदेश, म्हणू नये खास।
जैसे धान्याविना भूस, काय कामाचे॥”
(“ब्रह्मज्ञान के बिना उपदेश देना निरर्थक है — जैसे बिना धान के भूसा व्यर्थ होता है।”)
अब उनके भीतर ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की प्रबल इच्छा जाग उठी। इस तीव्र तड़प को जानकर श्री गजानन महाराज ने उन्हें आदेश दिया कि वे कोल्हापुर स्थित कणेरी मठ के समर्थ, सिद्धयोगी सद् गुरू मुप्पिन काडसिद्धेश्वर महाराज को अपना गुरु स्वीकार करें।
सद् गुरू का स्वीकार और परंपरा में प्रवेश
(Accepting the Sadguru and Entering the Parampara)
श्री गजानन महाराज के वेदवचन समान आदेश को कौन अस्वीकार कर सकता है? उसी आदेश के अनुसार, 30 जनवरी 1991, पौर्णिमा के पावन दिन पर जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी ने समर्थ सद् गुरू काडसिद्धेश्वर महाराज के शिष्य के रूप में दीक्षा स्वीकार की।
निंबार्काचार्य परंपरा और इंचगिरी संप्रदाय
समर्थ सद् गुरू काडसिद्धेश्वर महाराज का संबंध निंबार्काचार्य गुरु परंपरा से है, जिसे आगे चलकर इंचगिरी संप्रदाय के नाम से भी जाना गया।
इस परंपरा का आरंभ भगवान दत्तात्रेय के शिष्य रेवणसिद्धनाथ से हुआ, जो नवनाथों में से एक थे।
रेवणसिद्धनाथ के 84 सिद्ध शिष्य थे, जिनमें से 8 प्रमुख शिष्य थे — जोगी, शारंगी, निजानंद, नैन, निरंजन, यदु, गैबनशुद्र और काष्टसिद्ध।
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काष्टसिद्धनाथ के शिष्य बने नारायणराव उर्फ गुरुलिंगजंगम महाराज (निंबार्गी)
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उनसे रघुनाथप्रिय महाराज (तंजावुर, तमिलनाडु) ने शिष्यत्व ग्रहण किया
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रघुनाथप्रिय के शिष्य बने भाऊसाहेब महाराज (उमदी – इंचगिरी)
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भाऊसाहेब महाराज के शिष्य बने समर्थ सद् गुरू सिद्धरामेश्वर महाराज (पाथरी, सोलापुर)
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सिद्धरामेश्वर महाराज के शिष्य बने समर्थ मुप्पिन काडसिद्धेश्वर महाराज, जो कणेरी (कोल्हापुर) स्थित लिंगायत समाज के धर्मपीठ के 26वें मठाधिपति हैं।
गजानन महाराज के आदेशानुसार नरेंद्राचार्य जी ने इन्हीं समर्थ सद् गुरू मुप्पिन काडसिद्धेश्वर महाराज के चरणों में शरण लेकर शिष्यत्व स्वीकार किया।
सद् गुरू की कृपा – नरेंद्राचार्य जी का अभंग
कृपावंत माझा सद् गुरू काडसिद्ध। अनुग्रहीत केले तेणे मला॥धृ.॥
स्वधर्माची खुण दावून मज त्याने। सोहम मंत्र कानी सांगितला॥1॥
ठायीची लावली अखंड समाधी। संपली उपाधी अविद्येची॥2॥
नरेंद्र म्हणे ईश अणूरेणूत आहे। संसार तो झाला मोक्षमय॥3॥
भावार्थ:
“मेरे करुणामय सद् गुरू काडसिद्धेश्वर महाराज ने मुझे अनुग्रह प्रदान किया। उन्होंने मुझे स्वधर्म का चिन्ह दिखाया और ‘सोहम’ मंत्र मेरे कानों में फूँका। उन्होंने मेरे भीतर अखंड समाधि की अवस्था स्थापित की और अविद्या (अज्ञान) के सभी बंधन समाप्त कर दिए।
नरेंद्र कहते हैं — ईश्वर प्रत्येक अणु-रेणु में विद्यमान है, और यह जानने के बाद यह संसार ही मेरे लिए मोक्षमय बन गया है।”
इस प्रकार, सद् गुरू की कृपा से जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी ने न केवल गुरु परंपरा में प्रवेश किया, बल्कि ब्रह्मज्ञान और आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अपने दिव्य आध्यात्मिक मार्ग पर निर्णायक कदम रखा।
गुरुज्ञान से हुई जागृति
(Awakening Through the Guru’s Self-Knowledge)
समर्थ सद् गुरू काडसिद्धेश्वर महाराज से प्राप्त हुए आत्मबोध के प्रकाश ने जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी के जीवन को पूर्णतः कृतार्थ बना दिया। अब उनका जीवन वैराग्य से परिपूर्ण हो चुका था। उन्होंने निश्चय किया कि वे पत्नी, पुत्र, माता-पिता और समस्त संसार को त्यागकर संन्यास ग्रहण करेंगे।
परंतु उनका यह संकल्प परिवार की नज़रों से छुपा नहीं रह सका। पत्नी और माता-पिता ने उन्हें सद् गुरू काडसिद्धेश्वर महाराज के चरणों में ले जाया।
माता-पिता की आँखों में आँसू थे और उनका विनम्र निवेदन कुछ यूँ था:
“अब हमें समझ में आ गया है कि नरेंद्र अब हमारे नहीं रहे। फिर भी, उनकी पत्नी, उनके पुत्र और हमारी दृष्टि से — हे सद् गुरू दयानिधे! — हम पर कृपा करें।
हम वचन देते हैं कि हम उन्हें कभी भी सांसारिक बातों में नहीं उलझाएँगे। वे भक्ति और धर्मजागरण की सेवा में स्वयं को समर्पित कर सकते हैं, हम कभी भी उनके मार्ग में बाधा नहीं बनेंगे।
परंतु उनकी पत्नी मात्र 23 वर्ष की हैं, पुत्र केवल साढ़े तीन वर्ष का है और नरेंद्र स्वयं 25 वर्ष के हैं। कृपया उन्हें हमारे साथ रहने और संसार की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी आध्यात्मिक कार्य करने का आदेश दें।”
इस करुण और भावपूर्ण प्रार्थना ने समर्थ सद् गुरू काडसिद्धेश्वर महाराज के अंतःकरण को गहराई से स्पर्श किया।
तब उन्होंने करुणापूर्वक कहा:
“यह मेरा प्रसाद समझकर मैं नरेंद्र को तुम्हें देता हूँ। वह तुम्हारे साथ रहेगा, तुम्हारे बीच रहेगा, परंतु उसका कार्य मेरा होगा।”
इस प्रकार, सद् गुरू की करुणा से नरेंद्राचार्य जी ने सांसारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अपने आध्यात्मिक मिशन की यात्रा आरंभ की — एक ऐसी यात्रा, जिसमें वे लोककल्याण, धर्मप्रचार और आत्मज्ञान के प्रकाश को संसार तक पहुँचाने के लिए स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर चुके थे।
गुरु आज्ञा का पालन
(Obedience to the Guru’s Will)
जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी का मन संसार में नहीं लगता था। इसलिए वे बार-बार अपने सद् गुरू काडसिद्धेश्वर महाराज से संन्यास लेने की अनुमति माँगते रहे।
अंततः सद् गुरू ने उन्हें विठ्ठलपंत कुलकर्णी (अपेगांव, पैठण, संभाजीनगर) की कथा सुनाई —
विठ्ठलपंत ने भी संन्यास लिया था, लेकिन उनके गुरु श्री रामानंद ने उन्हें संसार में लौटने का आदेश दिया।
विठ्ठलपंत ने गुरुआज्ञा का पालन किया और संसार में लौट आए।
उनके ही पुत्र — निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर, सोपान और मुक्ताबाई — ने संपूर्ण विश्व को आध्यात्मिक प्रकाश प्रदान किया।
गुरु वाक्य मंत्रमूलम
“तू स्वयं कहता है कि गुरु के शब्द ही सभी मंत्रों का मूल हैं।
तो याद रख, गुरु आज्ञा का पालन करना ही सर्वोच्च आध्यात्मिक साधना है।”
यह सुनकर नरेंद्राचार्य जी को समझ आ गया कि अब उनके पास संसार में लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
उन्होंने नम्रतापूर्वक गुरु की आज्ञा स्वीकार की और मार्च 1991 के अंत तक नाणीज लौट आए।
अब उन्हें यह गहन सत्य स्पष्ट हो गया —
संसार से भागकर मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता। संसार में रहकर ही मोक्ष के मार्ग पर चलना होगा।
आश्रम की स्थापना और “स्व-स्वरूप संप्रदाय” की नींव
(Foundation of the Ashram and the “Sw-Swaroop Sampradaya”)
सद् गुरू काडसिद्धेश्वर महाराज के दिव्य आदेश का गूढ़ अर्थ समझते हुए, जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी ने अप्रैल 1991 में नाणीज स्थित अपनी पैतृक भूमि (प्लॉट क्र. 295) पर एक छोटा आश्रम स्थापित करने का निर्णय लिया और भक्ति मार्ग का ध्वज सदा फहराने का संकल्प किया।
वे नाणीज से बार-बार कणेरी मठ जाकर गुरु की सेवा और संगति में समय बिताते थे। एक बार, जब वे वहाँ सेवा में लीन थे, गुरुवार, 13 फरवरी 1992 को सद् गुरू ने उन्हें सीधे आदेश दिया —
“नौकरी का त्याग कर दो।”
गुरु आदेश का पालन करते हुए, नरेंद्राचार्य जी ने अगले ही दिन 14 फरवरी 1992 को ग्रामसेवक पद से इस्तीफा दे दिया और स्वयं को पूर्णतः आध्यात्मिक कार्य के लिए समर्पित कर दिया।
इस समय तक अप्रैल 1991 में आरंभ हुए आश्रम निर्माण का कार्य भी पूरा हो चुका था।
24 फरवरी 1992 को, गुरु आदेश के अनुसार, उन्होंने “स्व-स्वरूप संप्रदाय” की स्थापना की और सम्पूर्ण मानवता को यह महान संदेश दिया —
“तुम जियो और दूसरों को भी जीने दो।”
स्वामीजी ने अपने ग्रामसेवक के पद से इस्तीफा दे दिया ताकि वे पूर्ण रूप से आध्यात्मिक सेवा को समर्पित हो सकें।

प्रिय साधना स्थल
(Favourite Meditation Retreats)
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सौताडा (कडा), बीड जिला
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खोरनिंको, लांजा तालुका, रत्नागिरी
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चाफवली-चाफनाथ, संगमेश्वर तालुका
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सिद्धेश्वर मंदिर, निवे बु.
इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक पवित्र स्थलों पर भी साधना की है।
साधना, सेवा और आचरण – जीवन का सार
नरेंद्राचार्य जी के अनुसार, साधना, सेवा और आचरण ही जीवन के सर्वोच्च आदर्श हैं। वे स्वयं इन्हें अपने जीवन में उतारते हैं और अपने अनुयायियों को भी इसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
उनका संदेश स्पष्ट है:
“अध्यात्म न तो कहने-सुनने का शास्त्र है, न ही केवल वाद-विवाद का विषय। यह तो जीने का शास्त्र है। जो इसे व्यवहार में लाता है, वही मानव देह का सर्वोच्च कर्तव्य सिद्ध करता है।”
अखिल भारतीय आखाड़ा परिषद की मान्यता
(Recognition by the Akhil Bharatiya Akhada Parishad)
नाशिक कुंभमेळा 2003 के दौरान अनेक संतों ने जगद् गुरू नरेंद्राचार्य जी के कार्यों को नज़दीक से देखा। उनके आध्यात्मिक, सामाजिक और मानवीय योगदान से प्रभावित होकर उस समय अखिल भारतीय षड्दर्शन आखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास महाराज ने उन्हें साधु परंपरा में आमंत्रित किया।
11 अप्रैल 2004, उज्जैन कुंभमेले में नरेंद्राचार्य जी को औपचारिक रूप से निर्वाणी आखाड़ा के शिष्य के रूप में स्वीकार किया गया और उन्हें “महंत नरेंद्रदास” नाम प्रदान किया गया।
दक्षिण भारत में वैष्णवों का कोई स्वतंत्र धर्मपीठ नहीं होने के कारण, वैष्णव आखाड़ों ने उनके असाधारण सामर्थ्य, नेतृत्व और प्रभाव को ध्यान में रखते हुए उन्हें “जगद् गुरू रामानंदाचार्य” के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रस्ताव रखा — ताकि दक्षिण भारत में वैष्णव भक्ति मार्ग और रामनाम प्रचार का विस्तार और अधिक व्यापक रूप से हो सके।
