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आद्य
जगद् गुरू

रामानंदाचार्य

जगद् गुरू रामानंदाचार्य : जीवन, दर्शन और विरासत

गुरु परंपरा : श्रीराम से राघवानंदाचार्य तक

प्रत्येक उत्तरवर्ती आचार्य — सीता, हनुमान, ब्रह्मा, वसिष्ठ, पराशर, व्यास, शुकदेव, पुरुषोत्तमाचार्य, गंगाधराचार्य, सदानंदाचार्य, रामेश्वरानंदाचार्य, द्वारानंदाचार्य, देवानंदाचार्य, श्यामानंदाचार्य, श्रुतानंदाचार्य, चिदानंदाचार्य, पूर्णानंदाचार्य, श्रीयानंदाचार्य, हर्यानंदाचार्य और राघवानंदाचार्य — ने विद्या, ध्यान, सामाजिक सुधार या भक्तिपरक उपदेश के माध्यम से वैष्णव परंपरा के किसी न किसी पक्ष को आगे बढ़ाया।
यह अखंड गुरु-शृंखला जगद्गुरु रामानंदाचार्य पर आकर पूर्ण हुई, जिन्होंने भक्ति को समानता और मानवता से जोड़कर धर्म को लोकशाही स्वरूप दिया और यह उद्घोष किया कि आध्यात्मिक ज्ञान और ईश्वर-साक्षात्कार सभी जातियों और स्त्री-पुरुषों के लिए समान रूप से उपलब्ध है।

जगद् गुरू रामानंदाचार्य का जीवन

इ.स. १२९९ में प्रयागराज में सीता-रामभक्त, विद्वान ब्राह्मण परिवार में जन्मे रामानंदाचार्य बचपन से ही असाधारण बुद्धि और गहन अध्यात्मिक झुकाव के धनी थे।
उन्होंने काशी में वेद और वेदान्त का अध्ययन किया और अपने गुरु स्वामी राघवानंदाचार्य — जो विशिष्टाद्वैत दर्शन के आचार्य थे — से दीक्षा प्राप्त की। पंचगंगा घाट पर वर्षों की तपस्या के बाद वे एक ऐसे गुरु के रूप में प्रकट हुए जिन्होंने लोकभाषाओं में धर्मोपदेश दिया, ताकि सामान्य जन भी धर्म का सार समझ सकें। उनका समानता का संदेश — अस्पृश्यता और जातिभेद का विरोध — सामाजिक नवजागरण का कारण बना।
उनके प्रमुख शिष्य कबीर, रैदास, तुलसीदास और सूरदास जैसे संत बने जिन्होंने उनकी भक्ति-क्रांति को सम्पूर्ण भारत में फैलाया।

दर्शन : विशिष्टाद्वैत, प्रपत्ति और शरीर–शरीरी भाव

रामानंदाचार्य ने श्रीरामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत वेदान्त को अपनाकर उसका पुनःव्याख्यान किया।
उन्होंने सिखाया कि ब्रह्म एक है, परन्तु वह गुणों और विविधताओं के साथ प्रकट होता है (ब्रह्म–चित्–अचित् एकत्व).

शरीर–शरीरी भाव के सिद्धांत के अनुसार, यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भगवान का शरीर है और भगवान उसका अंतःस्थित आत्मा हैं —
अर्थात् मानवता की सेवा करना ही ईश्वर की सेवा है।

उन्होंने प्रपत्ति (पूर्ण समर्पण) के पाँच भावों पर विशेष बल दिया —

  1. अनुकूल संकल्प (ईश्वर को प्रिय कार्य करने का निश्चय),

  2. प्रतिकूल वर्जन (ईश्वर के विरोधी आचरण से त्याग),

  3. रक्षण पर दृढ़ विश्वास,

  4. गोप्तृत्व स्वीकार (ईश्वर को रक्षक रूप में स्वीकारना),

  5. कार्पण्य (नम्रता और आत्म-असमर्थता का भाव)।

सीता और राम की अविभाज्यता ज्ञान और करुणा के ऐक्य का प्रतीक है — ये दोनों ही सृष्टि और भक्ति के संचालन के मूल तत्त्व हैं।

सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन

रामानंदाचार्य ने उस युग में धर्म को पुनर्जीवित किया जब समाज कर्मकांडों, जाति-विभाजन और असमानता से जकड़ा हुआ था। उन्होंने जनभाषा में उपदेश दिया, भक्ति का मार्ग सभी के लिए खुला किया, अस्पृश्यता का विरोध किया, स्त्रियों के आध्यात्मिक अधिकारों का समर्थन किया और भक्ति को सामाजिक एकता का साधन बनाया।
उनकी यह चळवळ (आंदोलन) उत्तर भारत में भक्ति पुनर्जागरण की नींव बनी, जिसने समानता, राष्ट्रभावना और नैतिक उत्थान को प्रोत्साहन दिया।

विरासत और प्रभाव

रामानंदाचार्य के बारह प्रमुख शिष्यों ने उनकी समानतामूलक भक्ति को आगे बढ़ाया।
कबीरदास ने निर्गुण भक्ति और जाति-विरोधी विचारों का प्रचार किया, रैदास ने श्रम और समानता की प्रतिष्ठा की, तुलसीदास ने रामचरितमानस के माध्यम से रामभक्ति को जन-जन तक पहुँचाया,
और अन्य शिष्यों ने उनके विचारों को समाज के विभिन्न स्तरों तक पहुँचाया। 
उनके विचारों ने आगे आने वाले संतों और दार्शनिक परंपराओं को प्रभावित किया, विश्वास और सेवा का समन्वय कर धर्म को व्यवहारिक और जनहितकारी बनाया। आधुनिक युग में भी उनके सिद्धांत — विनम्रता, सेवा और शरणागति — वैश्विक शांति और मानवता के लिए अत्यंत प्रासंगिक हैं।

रामानंदी तिलक चिन्ह

ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक — कपाल पर लगाई जाने वाली दो सफेद लंबवत रेखाएँ और बीच में लाल या पीली रेखा —
विष्णु के चरणों तथा सीता की करुणा का प्रतीक है। यह तिलक भक्तों को पवित्रता, अनुशासन और समर्पण की निरंतर याद दिलाता है।

रामानंदी ध्वज

भगवा या केसरी रंग का रामानंदी ध्वज “श्रीराम” या “सीताराम” जैसे पवित्र नामों से अंकित होता है।
यह वैराग्य, साहस और श्रद्धा का प्रतीक है तथा ज्ञान और भक्ति की एकता को दर्शाता है।​

पवित्र माला

भक्तजन तुलसी की मालाओं का उपयोग करते हैं।  तुलसी भक्ति का प्रतीक है, जबकि रुद्राक्ष वैराग्य और तपस्या का द्योतक है। ये माला नाम-जप, ध्यान और ईश्वर-स्मरण के साधन हैं, जो एकाग्रता और अध्यात्मिक उन्नति में सहायक होती हैं।

रामानंदी संप्रदाय का नाम और विकास

“रामानंदी संप्रदाय” अर्थात राम का आनंद प्राप्त करने वाला मार्ग — यह श्रीवैष्णव परंपरा से विकसित होकर उत्तर भारत में एक जनआंदोलन बना, जिसका मुख्य आधार समावेशिता, सेवा और भक्ति था।
इसके मठ और केंद्र शिक्षा, साधना और परोपकार के प्रमुख केंद्र बने।

वैष्णव अखाड़े : इतिहास और संगठन

प्रारंभ में वैष्णव अखाड़े साधुओं के रक्षार्थ और मंदिरों की सुरक्षा हेतु स्थापित किए गए थे। बाद में उन्होंने रामानंदी परंपरा के अनुशासन, भक्ति और सेवा के मूल्यों को संस्थागत स्वरूप प्रदान किया। प्रत्येक अखाड़ा एक महंत और वरिष्ठ साधु परिषद् के नेतृत्व में संचालित होता है, जो शिक्षा, यात्रा-प्रबंधन और समाज-सेवा के कार्यों का संचालन करते हैं। आधुनिक युग में ये अखाड़े पर्यावरण संरक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य और सेवा-कार्यक्रमों में सक्रिय हैं,
और इस प्रकार रामानंदाचार्य के आध्यात्मिक एवं सामाजिक संदेश को आज भी जीवित रखे हुए हैं।

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